स्तोत्रं शृणु महेशानि ब्रह्मणः परमात्मनः । उच्छ्रुत्वा साधको देवि ब्रह्मसायुज्यमश्नुते ॥ ॐ नमस्ते सते सर्वलोकाश्रयाय नमस्ते चिते विश्वरूपात्मकाय । नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय नमो ब्रह्मणे व्यापिने निर्गुणाय ॥ १॥
देवा ऊचुः । ब्रह्मणे ब्रह्मविज्ञानदुग्धोदधि विधायिने । ब्रह्मतत्त्वदिदृक्षूणां ब्रह्मदाय नमो नमः ॥ १ ॥ कष्टसंसारमग्नानां संसारोत्तारहेतवे । साक्षिणे सर्वभूतानां साक्षिहीनाय ते नमः ॥ २ ॥
श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच। कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसावृतम् । अभिव्यनक्जगदिदं स्वयं ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ १॥ कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल द्वारा प्रेरित तमोगुण से, गहन अन्धकार से आच्छादित हो गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाश- स्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया ॥ १॥
नमस्ते सते ते जगत्कारणाय नमस्ते चिते सर्वलोकाश्रयाय। नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय नमो ब्रह्मणे व्यापिने शाश्वताय। त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं, त्वमेकं जगत्पालकं स्वप्रकाशम्
श्रीगणेशाय नमः ध्यानम् - रक्तश्वेतहिरण्यनीलधवलैर्युक्तां त्रिनेत्रोज्ज्वलां रक्तारक्तनवस्रजं मणिगणैर्युक्तां कुमारीमिमाम् ।गायत्री कमलासनां करतलव्यानद्धकुण्डाम्बुजां पद्माक्षीं च वरस्रजञ्च दधतीं हंसाधिरूढां भजे ॥
नारद उवाच । भक्तानुकम्पिन् सर्वज्ञ हृदयं पापनाशनम् । गायत्र्याः कथितं तस्माद्गायत्र्याः स्तोत्रमीरय ॥ १ ॥ श्रीनारायण उवाच । आदिशक्ते जगन्मातर्भक्तानुग्रहकारिणि । सर्वत्र व्यापिकेऽनन्ते श्रीसन्ध्ये ते नामोऽस्तु ते ॥ २ ॥
विनियोगः ॐ अस्य श्रीसरस्वतीस्तोत्रमंत्रस्य ब्रह्माऋषिः गायत्री छन्दः श्रीसरस्वती देवता धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोगः | आरूढ़ा श्वेतहंसे भ्रमति च गगने दक्षिणे चाक्षसूत्रं वामे हस्ते च दिव्याम्बरकनकमयं पुस्तकं ज्ञानगम्या | सा वीणां वादयन्ती स्वकरकरजपैः शास्त्रविज्ञानशब्दैः क्रीडन्ति दिव्यरूपा करकमलधरा भारती सुप्रसन्ना || १ ||
नारद उवाच -सहस्त्रशीर्षापुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादध्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम् ॥१॥ नारद बोले - जिस (देवता) के हजारों मस्तक हैं, जिसके हजारों नेत्र हैं, एवं जिसके हजारों पैर (पाद) हैं - ऐसा एक पुरुष (ईश्वर) हैं। वह भूमि को चारों तरफ से आवृत कर रहा है। तथा वह दश अङ्गुल रूप इस छोटी सी सृष्टि को व्याप्त कर इससे बाहर भी स्थित है ॥ १ ॥
देवा ऊचुः - लोकेश तारको दैत्यो वरेण तव दर्पितः । निरस्यास्मान् हठादस्मद्विषयान् स्वयमग्रहीत् ॥ ६८॥ रात्रिन्दिवं बाधतेऽस्मान् यत्र तत्र स्थिता वयम् । पलायिताश्च पश्यामः सर्वकाष्ठासु तारकम् ॥ ६९॥
त्वमोङ्कारोऽस्यङ्कुराय प्रसूतो विश्वस्यात्मानन्तभेदस्य पूर्वम् । सम्भूतस्यानन्तरं सत्त्वमूर्ते संहारेच्छोस्ते नमो रुद्रमूर्त्ते ॥ १॥ व्यक्तिं नीत्वा त्वं वपुः स्वं महिम्ना तस्मादण्डात् स्वाभिधानादचिन्त्यः । द्यावापृथिव्योरूर्ध्वखण्डावराभ्यां ह्यण्डादस्मात्त्वं विभागं करोषि ॥ २॥
प्रपद्ये देवमीशानं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्। । महादेवं महात्मानं सर्वस्य जगतः पतिम् ॥ १ ॥ आप हे देव ! आप सबके स्वामी हैं, आप शाश्वत (अविनाशी ) ध्रुव (स्थिर) एवं अव्यय ( अनश्वर) हैं। आप देवाधिदेव हैं, महान् आत्मा हैं, तथा समस्त जगत् के पति हैं, अतः आपको प्रणाम है ॥ १ ॥
नमो नमस्ते जगदेककर्त्रे नमो नमस्ते जगदेकपात्रे । नमो नमस्ते जगदेकहर्त्रे रजस्तमःसत्वगुणाय भूम्ने ॥ १॥ जगत् के एकमात्र कर्ता तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है, जगत् के एकमात्र पालक तुम्हें नमस्कार है, नमस्कार है । जगत् के एकमात्र हर्ता और सत्व, रज एवं तमो गुण के लिए भूमि स्वरूप तुमको नमस्कार है, नमस्कार है ॥ १ ॥
श्री गणेशाय नमः । एहि लसत्सितशतदलवासिनि भारति मामकमास्यम् । देहि च मे त्वदमरनिकरार्चितपादतले निजदास्यम् ॥ ध्रुवम् ॥ ॥ १॥ गदघहारिणि मधुरिपुजाये हिमगिरिजित्वरसिततमकाये ।
नमोऽस्त्वनन्ताय विशुद्धचेतसे स्वरूपरूपाय सहस्रबाहवे । सहस्ररश्मिप्रभवाय वेधसे विशालदेहाय विशुद्धकर्मणे ॥ १॥ विष्णु बोले— अनन्त नाम रूप वाले, विशुद्धचित्त, स्वरूप- स्थित, सहस्रबाहु, सूर्य के समान समर्थ, विशाल शरीर धारी एवं विशुद्ध (पवित्र) चेष्टाओं वाले आप ब्रह्माजी को मेरा प्रणाम है ॥ १ ॥
जिनका स्वरूप ध्यानियों के तमोगुणरूपी अन्धकार को नष्ट करता है, वाग्देवी सरस्वती जिनकी गृहिणी है, जिनके मुख से निःसृत वाणी ही चारों वेद हैं, जिनका यह समस्त चराचर विश्व कुटुम्ब (परिवार) है जिन्होंने अपने समग्र कार्य वेदों से प्रमाणित कर वेदों में प्रामाणिकता प्रदर्शित की, जिन्होंने केवल अपनी शक्ति के बल पर यथेच्छ सृष्टि रचना की, ऐसे अन्तरहित (अनन्त) देवाधिदेव भगवान् ब्रह्मा की हम स्तुति करते हैं ॥
नारायणादनन्तरं रुद्रो भक्त्या विरञ्चिनम् । तुष्टाव प्रणतो भूत्वा ब्रह्माणं कमलोद्भवम् ॥ १ ॥ भगवान् विष्णु द्वारा ब्रह्मा की स्तुति करने के बाद, भगवान् शङ्कर ने भी भक्तिपूर्वक आदिदेव पद्मयोनि ब्रह्मा की इस प्रकार स्तुति आरम्भ की ॥ १ ॥ रुद्र उवाच - नमः कमलपत्राक्ष नमस्ते पद्मजन्मने । नमः सुरासुरगुरो कारिणे परमात्मने॥२॥
विनियोग- ॐ अस्य श्री परब्रह्ममंत्र, सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः, निर्गुण सर्वान्तर्यामी परम्ब्रह्मदेवता, चतुर्वर्गफल सिद्ध्यर्थे विनियोगः। ऋष्यादिन्यास-
याज्ञवल्क्य उवाच । स्वामिन् सर्वजगन्नाथ संशयोऽस्ति महान्मम । चतुःषष्टिकलानां च पातकानां च तद्वद ॥ १ ॥ मुच्यते केन पुण्येन ब्रह्मरूपं कथं भवेत् । देहश्च देवतारूपो मन्त्ररूपो विशेषतः । क्रमतः श्रोतुमिच्छामि कवचं विधिपूर्वकम् ॥ २ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्त पुराण के प्रकृतिखण्ड, अध्याय ४ में मुनिवर भगवान नारायण ने मुनिवर नारदजी को बतलाया कि ‘विप्रेन्द्र! श्रीसरस्वती कवच विश्व पर विजय प्राप्त कराने वाला है। जगत्स्त्रष्टा ब्रह्मा ने गन्धमादन पर्वत पर भृगु के आग्रह से इसे इन्हें बताया था। ब्रह्मोवाच -श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि कवचं सर्वकामदम्। श्रुतिसारं श्रुतिसुखं श्रुत्युक्तं श्रुतिपूजितम्॥ उक्तं कृष्णेन गोलोके मह्यं वृन्दावने वमे। रासेश्वरेण विभुना वै रासमण्डले॥ अतीव गोपनीयं च कल्पवृक्षसमं परम्।
॥ श्रीब्रह्माष्टोत्तरशतनामावलिः ॥ ॐ ब्रह्मणे नमः । गायत्रीपतये । सावित्रीपतये । सरस्वतिपतये । प्रजापतये । हिरण्यगर्भाय । कमण्डलुधराय । रक्तवर्णाय । ऊर्ध्वलोकपालाय । वरदाय । वनमालिने । सुरश्रेष्ठाय । पितमहाय । वेदगर्भाय । चतुर्मुखाय । सृष्टिकर्त्रे । बृहस्पतये । बालरूपिणे । सुरप्रियाय । चक्रदेवाय नमः
॥ श्री गायत्री अष्टोत्तर शतनामावली ॥ ॐ तरुणादित्यसङ्काशायै नमः । ॐ सहस्रनयनोज्ज्वलायै नमः । ॐ विचित्रमाल्याभरणायै नमः । ॐ तुहिनाचलवासिन्यै नमः । ॐ वरदाभयहस्ताब्जायै नमः । ॐ रेवातीरनिवासिन्यै नमः । ॐ प्रणित्यय विशेषज्ञायै नमः । ॐ यन्त्राकृतविराजितायै नमः । ॐ भद्रपादप्रियायै नमः । ९
॥ श्रीसरस्वती अष्टोत्तरनामावली ॥ ॐ सरस्वत्यै नमः । ॐ महाभद्रायै नमः । ॐ महामायायै नमः । ॐ वरप्रदायै नमः । ॐ श्रीप्रदायै नमः । ॐ पद्मनिलयायै नमः । ॐ पद्माक्ष्यै नमः । ॐ पद्मवक्त्रायै नमः । ॐ शिवानुजायै नमः । ॐ पुस्तकभृते नमः । १०
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवीं दयामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥ १ ॥ इस सृष्टि के निर्माण से पूर्व हिरण्यगर्भ (परमात्मा) विदयमान था। वही उत्पन्न जगत् का एकमात्र (अद्वितीय) स्वामी है। वही इस पृथ्वी एवं अन्तरिक्ष को धारण करता है। इस सुखदायी परमेश्वर ('क' नामक प्रजापति) की हम हवि के द्वारा उपासना (पूजा) करते हैं ॥१॥
The Brahma Sūktam is found both in the Atharva Vēda and the Taittirīya Brāhmaṇa. This text deals with the glory of the Supreme Being. The Brahma Sūktam is used during the famous ritual Udakaśānti. The Udakaśānti is very prevalent and well known to many. It is performed before Upanayana where Varuṇa is invoked in the waters and later the same water is poured on the people who are getting their Upanaya done, this is the same for all the Samskāras. Some even do daily Pārāyaṇa of this Mantra, but normally it is used mainly in the rituals.
ब्रह्माजी के प्रति भक्ति के भेद, रथयात्रा, ब्रह्मा के एक सौ आठ नाम तथा कार्तिक पूर्णिमा को उनके दर्शन का माहात्म्य महादेवजी कहते हैं- भक्ति के तीन भेद हैं- लौकिकी, वैदिकी और आध्यात्मिकी। गन्ध, माला, शीतल जल, घी, गुग्गुल, धूप, काला अगुरु, सुगन्धित पदार्थ, सुवर्ण, रत्न आदि आभूषण, विचित्र हार, न्यास, स्तोत्र, ऊँची-ऊँची पताका, नृत्य-वाद्य, गान, सब प्रकार की वस्तुओं के उपहार तथा भक्ष्य, भोज्य, अन्न, पान आदि सामग्रियों से मनुष्यों द्वारा जो ब्रह्माजी की पूजा की जाती है, लौकिकी भक्ति मानी गयी है।
जपहेतु माला— एतदनन्तर, आराधक को भगवान् देवाधिदेव ब्रह्माजी के अभीष्ट मन्त्र का न्यासादिपूर्वक रुद्राक्ष या लालचन्दन की माला पर स्वकार्यसिद्ध्यर्थ इच्छानुसार जप करना चाहिये । माला का पूजन — सर्वप्रथम, माला का अधोलिखित मन्त्रों से पूजन कर जप प्रारम्भ करना चाहिये-
शास्त्र का विधान है कि आराधक को अपने अभीष्ट देवता से वरप्राप्ति के लिये, सर्वप्रथम षोडशोपचार विधि से उस देवता की, शुद्धचित्त एवं पवित्र हृदय रखते हुए, सङ्कल्पपूर्वक पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर मन्त्र का जप या स्तोत्र का पाठ, निश्चित सङ्ख्या में आरम्भ करना चाहिये। अतः यहाँ सर्वप्रथम देवाधिदेव ब्रह्मा जी का दैनिक पूजा -क्रम शास्त्रविधिपूर्वक लिखा जा रहा है.