श्री विष्णुकृत श्री ब्रह्मा स्तुती (पद्मपुराण अंतर्गत)
Shri Vishnu krit Shri Brahma Stuti (In Padma Purana)
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नमोऽस्त्वनन्ताय विशुद्धचेतसे स्वरूपरूपाय सहस्रबाहवे ।
सहस्ररश्मिप्रभवाय वेधसे विशालदेहाय विशुद्धकर्मणे ॥ १॥
सहस्ररश्मिप्रभवाय वेधसे विशालदेहाय विशुद्धकर्मणे ॥ १॥
विष्णु बोले— अनन्त नाम रूप वाले, विशुद्धचित्त, स्वरूप- स्थित, सहस्रबाहु, सूर्य के समान समर्थ, विशाल शरीर धारी एवं विशुद्ध (पवित्र) चेष्टाओं वाले आप ब्रह्माजी को मेरा प्रणाम है ॥ १ ॥
समस्तविश्वार्तिहराय शम्भवे समस्तसूर्यानिलतिग्मतेजसे ।
नमोऽस्तु विदयावितताय चक्रिणे समस्तधीस्थानकृते सदा नमः ॥ २॥
नमोऽस्तु विदयावितताय चक्रिणे समस्तधीस्थानकृते सदा नमः ॥ २॥
हे ब्रह्मन्! समस्त संसार के सभी प्रकार के कष्टों को दूर करने वाले, शङ्कर स्वरूप सम्पूर्ण सूर्य और अग्नियों के समान तीक्ष्ण तेज वाले, विदया के प्रभाव से तीव्र ज्ञानमय, चक्रधारी, समस्त बुद्धियों के एकमात्र ज्ञेय आपको मेरा सदा प्रणाम है ॥ २ ॥
अनादिदेवाच्युतशेखर प्रभो भाव्युद्भवद्भूतपते महेश्वर ।
महत्पते सर्वपते जगत्पते भुवस्पते भुवनपते सदा नमः ॥ ३ ॥
महत्पते सर्वपते जगत्पते भुवस्पते भुवनपते सदा नमः ॥ ३ ॥
हे अनादिदेव! अच्युत ! शेखर ! हे स्वामिन्! भूत भविष्यद् एवं वर्तमान के अधिकारी, हे महेश्वर ! हे महत्पते ! हे जगत्पते ! हे सर्वपते! हे पृथ्विपते! हे लोकपते ! आपको सदा प्रणाम है ॥ ३ ॥
यज्ञेश नारायण जिष्णुशङ्कर क्षितीश विश्वेश्वर विश्वलोचन ।
शशाङ्कसूर्याच्युत वीर विश्वप्रवृत्तमूर्तेऽमृतमूर्त अव्यय ॥४॥
शशाङ्कसूर्याच्युत वीर विश्वप्रवृत्तमूर्तेऽमृतमूर्त अव्यय ॥४॥
हे यज्ञेश! हे नारायण ! हे जयशील शङ्कर ! हे पृथ्वीपते ! हे जगदीश्वर ! हे विश्व के मार्गदर्शक ! हे चन्द्रमा एवं सूर्य के समान अपनी चेष्टाओं में निरन्तर उत्साहित ! हे विश्वमय देह (शरीर) वाले ! हे अमृतमूर्ति ! हे अविनाशिन् ! आपको प्रणाम है ॥ ४ ॥
ज्वलद्धताशार्चिनिरुद्धमण्डलप्रदेश नारायण विश्वतोमुख ।
समस्तदेवार्तिहरामृताव्यय प्रपाहि मां शरणगतं तथा विभो ॥ ५ ॥
समस्तदेवार्तिहरामृताव्यय प्रपाहि मां शरणगतं तथा विभो ॥ ५ ॥
प्रज्वलित अग्नि की कान्ति के समान प्रदीप्त आभामण्डल वाले! हे नारायण ! हे चारों तरफ मुख वाले! समस्त देवताओं के कष्टों को दूर करने में अमृतस्वरूप, हे अविनाशिन् ! हे प्रभो ! मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें ॥ ५ ॥
वक्त्राण्यनेकानि विभो तवाहं पश्यामि यज्ञस्य गतिं पुराणम् ।
ब्रह्माणमीशं जगतां प्रसूतिं नमोऽस्तु तुभ्यं प्रपितामहाय ॥६॥
ब्रह्माणमीशं जगतां प्रसूतिं नमोऽस्तु तुभ्यं प्रपितामहाय ॥६॥
हे प्रभो! मैं आपके अनेक मुख देख रहा हूँ, जो कि सभी यज्ञों की एकमात्र सीमा (गति) हैं। हे पुराण पुरुष ! हे प्रपितामह ! जगत् की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी ! आप को मेरा प्रणाम है ॥ ६ ॥
संसारचक्रक्रमणैरनेकैः क्वचिद् भवान् देववराधिदेवः।
तत्सर्वविज्ञानविशुद्धसत्त्वैरुपास्यसे किं प्रणमाम्यहं त्वाम् ॥ ७॥
तत्सर्वविज्ञानविशुद्धसत्त्वैरुपास्यसे किं प्रणमाम्यहं त्वाम् ॥ ७॥
हे देवताओं में बृहद् देव ! इस संसार में अनेक चक्र घूमने (जन्म-मरण) के बाद ही कभी आप की प्राप्ति (दर्शन) हो पाती है। अतः आप सब तरह से निर्दोष निर्विकार हो एवं निर्मल चित्त वाले ज्ञानियों द्वारा ही आप की उपासना की जा सकती है। अतः मैं आप को प्रणाम करता हूँ ॥ ७ ॥
एवं भवन्तं प्रकृतेः पुरस्ताद् यो वेत्त्यसौ सर्वविदां वरिष्ठः ।
गुणान्वितेषु प्रसभं विवेदयो विशालमूर्तिस्त्विह सूक्ष्मरूपः ॥ ८ ॥
गुणान्वितेषु प्रसभं विवेदयो विशालमूर्तिस्त्विह सूक्ष्मरूपः ॥ ८ ॥
इस तरह जो साधक आप को प्रकृति से भी आगे (उत्कृष्ट) समझता है वही सब ज्ञानियों में श्रेष्ठ है। आप सब गुणवानों में श्रेष्ठ हैं, अतः आप सबके आराध्य हैं । आप विशाल शरीर से होते हुए भी सूक्ष्म रूप हैं ॥ ८ ॥
वाक्पाणिपादैर्विगतेन्द्रियोऽपि कथं भवान् वै सुगतिः सुकर्मा ।
संसारबन्धे निहतेन्द्रियोऽपि पुनः कथं देववरोऽसि वेदयः॥९॥
संसारबन्धे निहतेन्द्रियोऽपि पुनः कथं देववरोऽसि वेदयः॥९॥
आप वाणी हाथ पैर आदि इन्द्रियों से विकल (रहित) होकर भी कैसे इतनी अच्छी ( विशुद्धि) गति एवं निर्मल चरित्र वाले हैं।यद्यपि संसार के बन्धन में आपका चित्त किञ्चित् मात्र भी आसक्त नहीं है फिर भी आप जगत् की सृष्टि करने में निरन्तर दत्तचित्त रहते हैं ॥ ९ ॥
मूर्त्तादमूर्त्तं न तु लभ्यते परं परं वपुर्देव विशुद्धभावैः ।
संसारविच्छित्तिकरैर्यजद्भिरतोऽवसीयेत चतुर्मुखत्वम् ॥ १० ॥
संसारविच्छित्तिकरैर्यजद्भिरतोऽवसीयेत चतुर्मुखत्वम् ॥ १० ॥
हे देव! स्थूल से सूक्ष्म शरीर साधारणतः नहीं मिला करता । अतः भवबन्धन को काटने वाले विशुद्ध हृदय याज्ञिकों (ज्ञानियों) ने आप में चतुर्मुखत्व की कल्पना की ॥ १० ॥
परं न जानन्ति यतो वपुस्ते देवादयोऽप्यद्भुतरूपधारिन् ।
विभोऽवतारेऽग्रतरं पुराणमाराधयेद् यत् कमलासनस्थम्॥११॥
विभोऽवतारेऽग्रतरं पुराणमाराधयेद् यत् कमलासनस्थम्॥११॥
हे अद्भुतरूपधारिन् ! आज तक कोई भी आप के शरीर का प्रमाण नहीं जान सका है। अतः यही उचित है कि आपके आदि रूप पुराणपुरुष के अवतार की आराधना की जाय ॥ ११ ॥
न ते तत्त्वं विश्वसृजोऽपि योनिमेकान्ततो वेत्ति विशुद्धभावः ।
परं त्वहं वेद्मि कथं पुराणं भवन्तमादयं तपसा विशुद्धम् ॥ १२॥
परं त्वहं वेद्मि कथं पुराणं भवन्तमादयं तपसा विशुद्धम् ॥ १२॥
जब कोई विशुद्ध हृदय ज्ञानी भी आप जगत्स्रष्टा के तत्त्व को पूर्णत: नहीं पा सका तो मैं पामर आप तपोनिष्ठ पुराण पुरुष के विषय में क्या जान सकता हूँ ॥ १२ ॥
पद्मासनो वै जनकः प्रसिद्ध एवं प्रसिद्धिर्ह्यसकृत् पुराणात् ।
सञ्चिन्त्यतेनाथ विभुं भवन्तं जानाति नैवं तपसा विहीनः ॥ १३ ॥
सञ्चिन्त्यतेनाथ विभुं भवन्तं जानाति नैवं तपसा विहीनः ॥ १३ ॥
पद्मासनस्थ ब्रह्मा (जगत् के) जन्मदाता के रूप में प्रसिद्ध हैं । ऐसा पुराणों में बार बार कहा गया है। इसीलिये हमलोग आप के उस पुराण रूप की ही आराधना करते हैं । परन्तु इस रहस्य को कोई तपोविहीन साधारण पुरुष नहीं समझ सकता ॥ १३ ॥
अस्मादृशैश्च प्रवरैर्विबोध्यं त्वां देव मूर्खाः स्वमतिं विभज्य ।
प्रबोद्धुमिच्छन्ति न तेषु बुद्धिरुदारकीर्तिस्वपि वेदहीनाः ॥ १४ ॥
प्रबोद्धुमिच्छन्ति न तेषु बुद्धिरुदारकीर्तिस्वपि वेदहीनाः ॥ १४ ॥
हे देव ! आप का रहस्य हम जैसे ज्ञानी पुरुष जो जान पाये हैं; परन्तु साधारण अज्ञानी पुरुष विविध मतवादों के भ्रम जाल में फँसकर आपका रहस्य जानने का प्रयास करते हैं, यद्यपि उनके ज्ञान का जनता में बहुत आदर है, परन्तु वे आपके वास्तविक रहस्यज्ञान से बहुत दूर हैं ॥ १४॥
जन्मान्तरैर्वेदविवेकबुद्धिभिर्भवेद् यथा वा यदि वा प्रकाशः ।
तल्लाभलुब्धस्य न मानुषत्वं न देवगन्धर्वपतिः शिवः स्यात् ॥ १५ ॥
तल्लाभलुब्धस्य न मानुषत्वं न देवगन्धर्वपतिः शिवः स्यात् ॥ १५ ॥
जन्म जन्मान्तर के वेदाध्ययन से निर्मल बुद्धि वाला कोई ज्ञानी पुरुष आपके विषय में किञ्चित् रहस्य भले ही जान ले; परन्तु इतने से ही वह आपके विषय में कुछ भी साधिकार नहीं बोल सकता। भले ही वह देव तथा गन्धर्वो का स्वामी (इन्द्र) या भगवान् शङ्कर ही क्यों हों ॥ १५ ॥
न विष्णुरूपो भगवन् सुसूक्ष्मः स्थूलोऽसि देवः कृतकृत्यतायाः ।
स्थूलोऽपि सूक्ष्मः सुलभोऽसि देव! त्वद्वाह्यकृत्या नरके पतन्ति॥ १६॥
स्थूलोऽपि सूक्ष्मः सुलभोऽसि देव! त्वद्वाह्यकृत्या नरके पतन्ति॥ १६॥
हे भगवन्! मेरे विष्णुरूप को कितना भी सूक्ष्मरूप क्यों न बताया जाय, परन्तु आपका स्थूलंरूप ही (सृष्टिरचना की) कृतकृत्यता की सीमा तक पहुँच चुका है। आपके स्थूल तथा सूक्ष्म — दोनों ही रूप साधारण भक्तजन के लिये भी सुलभ हैं । अतः कोई भी प्राणी आपकी आराधना से दूर रहकर अपने लिये नरक में ही स्थान बनाता है ॥ १६ ॥
विमुच्यते वा भवति स्थितेऽस्मिन् दस्त्रेन्दु वह्न्यर्कमरुन्महीभिः ।
तत्त्वैः स्वरूपैः समरूपधारिभिरात्मस्वरूपे विततस्वभावः ॥ १७॥
तत्त्वैः स्वरूपैः समरूपधारिभिरात्मस्वरूपे विततस्वभावः ॥ १७॥
भगवन्! आपके स्वरूप में स्थित रहते हुए आराधक अश्विनी- कुमार, सूर्य एवं चन्द्रमा, अग्नि या वायु पृथ्वी तत्त्वों की आसक्ति से विमुक्त हो जाता है ॥ १७ ॥
इति स्तुतिं मे भगवन् ह्यनन्तजुषस्व भक्तस्य विशेषतश्च ।
समाधियुक्तस्य विशुद्धचेतसस्त्वद्भावभावैकमनोऽनुगस्य ॥१८॥
समाधियुक्तस्य विशुद्धचेतसस्त्वद्भावभावैकमनोऽनुगस्य ॥१८॥
अतः हे ब्रह्मन् ! आप अपने इस असाधारण भक्त की स्तुति स्वीकार करें जिसका कि समाधि में निरन्तर रत रहने के कारण चित्त निर्मल हो चुका है और वह सततरूपेण आप की ही आराधना में मग्न रहता है ॥ १८ ॥
सदा हृदिस्थो भगवन्नमस्ते नमामि नित्यं भगवन् पुराण !
इति प्रकाशं तव मे तदीश स्तवं मया सर्वगतिप्रबुद्ध ! ॥ १९ ॥
इति प्रकाशं तव मे तदीश स्तवं मया सर्वगतिप्रबुद्ध ! ॥ १९ ॥
हे पुराणपुरुष ! भगवन्! आप मेरे हृदय में नित्य विराजमान रहते हैं। अत: हे सभी गतियों के ज्ञाता ! मेरी इस स्तुति को स्वीकार करें ॥ १९ ॥
संसारचक्रे भ्रमणादियुक्ता भीतिं पुनर्नः प्रतिपालयस्व ॥ २० ॥
और आप संसार चक्र में भ्रमण से भीत हमारी सर्वथा रक्षा करें ॥ २० ॥
पद्मपुराण में श्रीविष्णुकृत ब्रह्मस्तव सम्पूर्ण ॥
From : Padma Purana, Srushti Khanda Adhyay 29, Shlok 97-115
( पद्मपुराण, सृष्टीखंड, अध्याय २९, श्लोक ९७ - ११५ )
The Ánandás'rama Sanskrit granthavali: Supplement, Volume 3
( पद्मपुराण, सृष्टीखंड, अध्याय २९, श्लोक ९७ - ११५ )
The Ánandás'rama Sanskrit granthavali: Supplement, Volume 3
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