श्री ब्रह्मस्तोत्र (श्री भागवत पुराण अंतर्गत)

Shri Brahma Stotram (In Bhagvata Purana)

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श्रीहिरण्यकशिपुरुवाच।
कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसावृतम् ।
अभिव्यनक्जगदिदं स्वयं ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ १॥
कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल द्वारा प्रेरित तमोगुण से, गहन अन्धकार से आच्छादित हो गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाश- स्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया ॥ १॥
आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।
रजः सत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ॥ २॥
आप ही अपने त्रिगुणमय रूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं । आप ही सबसे पर (उत्कृष्ट) और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥
नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।
प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥ ३॥
आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं । प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने स्वयं को प्रकट किया है ॥ ३ ॥
त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम् ।
चित्तस्य चित्तेर्मनः इन्द्रियाणां पतिर्महान्भूत गुणाशयेशः ॥ ४॥
आप मुख्यप्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं । आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन् ! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पञ्चभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं॥ ४॥
त्वं सप्ततन्तून्वितनोऽपि तन्वा त्रय्या चतुर्होत्रकविद्यया च ।
त्वमेक आत्मात्मवतामनादि- रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ॥ ५॥
जो वेद, होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता - इन ऋत्विजों से होने वाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हीं के द्वारा अग्निष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा है; क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं ॥५॥
त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना- मायुर्लवाद्यावयवैः क्षिणोषि ।
कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजोमहां- स्त्वं जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥ ६॥
आप ही काल हैं । आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं; क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं ॥ ६ ॥
त्वत्तः परं नापरमप्यनेज- देजच्च किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।
विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा हिरण्यगर्भोऽसि बृहत् त्रिपृष्ठः ॥ ७॥
प्रभो! कार्य कारण, चल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं. है जो आपसे भिन्न हो । समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आप के गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं ॥ ७ ॥
व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं येनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम् ।
भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्य-अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ॥ ८॥
प्रभो! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इसके माध्यम से आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं । किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं । वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल सूक्ष्म से परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं ॥ ८ ॥
अनन्ताव्यक्त रूपेण येनेदमखिलं ततम् ।
चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥ ९॥
आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन- ये दोनों आपकी ही शक्तियाँ हैं । भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ९॥
इति ब्रह्मस्तोत्रं समाप्तम् ।
श्रीमद्भागवत महापुराण के सप्तम स्कन्ध में हिरण्यकशिपुकृत ब्रह्मा का स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।

From : Shimad Bhagvat Purana, Skanda 7, Adhyay 3 ( श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ७/अध्यायः ३)