श्री ब्रह्मा अष्टोत्तर शतनामावली

Shri Brahma Ashtottar Namavali


॥ श्रीब्रह्माष्टोत्तरशतनामावलिः ॥
ॐ ब्रह्मणे नमः । गायत्रीपतये । सावित्रीपतये । सरस्वतिपतये ।
प्रजापतये । हिरण्यगर्भाय । कमण्डलुधराय । रक्तवर्णाय ।
ऊर्ध्वलोकपालाय । वरदाय । वनमालिने । सुरश्रेष्ठाय । पितमहाय ।
वेदगर्भाय । चतुर्मुखाय । सृष्टिकर्त्रे । बृहस्पतये । बालरूपिणे ।
सुरप्रियाय । चक्रदेवाय नमः ॥ २०॥
ॐ भुवनाधिपाय नमः । पुण्डरीकाक्षाय । पीताक्षाय । विजयाय ।
पुरुषोत्तमाय । पद्महस्ताय । तमोनुदे । जनानन्दाय । जनप्रियाय ।
ब्रह्मणे । मुनये । श्रीनिवासाय । शुभङ्कराय । देवकर्त्रे ।
स्रष्ट्रे । विष्णवे । भार्गवाय । गोनर्दाय । पितामहाय ।
महादेवाय नमः ॥ ४०॥
ॐ राघवाय नमः । विरिञ्चये । वाराहाय । शङ्कराय । सृकाहस्ताय ।
पद्मनेत्राय । कुशहस्ताय । गोविन्दाय । सुरेन्द्राय । पद्मतनवे ।
मध्वक्षाय । कनकप्रभाय । अन्नदात्रे । शम्भवे । पौलस्त्याय ।
हंसवाहनाय । वसिष्ठाय । नारदाय । श्रुतिदात्रे ।
यजुषां पतये नमः ॥ ६०॥
ॐ मधुप्रियाय नमः । नारायणाय । द्विजप्रियाय । ब्रह्मगर्भाय ।
सुतप्रियाय । महारूपाय । सुरूपाय । विश्वकर्मणे । जनाध्यक्षाय ।
देवाध्यक्षाय । गङ्गाधराय । जलदाय । त्रिपुरारये । त्रिलोचनाय ।
वधनाशनाय । शौरये । चक्रधारकाय । विरूपाक्षाय । गौतमाय ।
माल्यवते नमः ॥ ८०॥
ॐ द्विजेन्द्राय नमः । दिवानाथाय । पुरन्दराय । हंसबाहवे ।
गरुडप्रियाय । महायक्षाय । सुयज्ञाय । शुक्लवर्णाय ।
पद्मबोधकाय । लिङ्गिने । उमापतये । विनायकाय । धनाधिपाय ।
वासुकये । युगाध्यक्षाय । स्त्रीराज्याय । सुभोगाय । तक्षकाय ।
पापहर्त्रे । सुदर्शनाय नमः ॥ १००॥
ॐ महावीराय । दुर्गनाशनाय । पद्मगृहाय । मृगलाञ्छनाय ।
वेदरूपिणे । अक्षमालाधराय । ब्राह्मणप्रियाय । विधये नमः ॥ १०८॥
॥ इति ब्रह्माष्टोत्तरशतनामावलिः समाप्ता ॥



पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने पूछा-
"देवाधिदेव पितामह! आप किन-किन स्थानों में किस-किस नाम से निवास करते हैं ? यह स्मरण करके बताइये ।"
ब्रह्माजी ने कहा-
मैं पुष्कर में सुरश्रेष्ठ, गया में प्रपितामह, कान्यकुब्ज में वेदगर्भ, भृगुकच्छ में चतुर्मुख, कौबेरी में सृष्टिकर्ता, नन्दिपुरी में बृहस्पति, प्रभास में बालरूपी, वाराणसी में सुरप्रिय, द्वारावती में चक्रदेव, वैदिश में भुवनाधिप, पौण्ड्रक में पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुर में पीताक्ष, जयन्ती में विजय, पुरुषोत्तम में जयन्त, वाड में पद्महस्त, तमोलिप्त में तमोनुद, आहिच्छत्री में जनानन्द, कांचीपुरी में जनप्रिय, कर्णाटक में ब्रह्मा, ऋषिकुण्ड में मुनि, श्रीकण्ठ में श्रीनिवास, कामरूप में शुभंकर, उड्डीयान में देवकर्ता, जालन्धर में स्रष्टा, मल्लिका में विष्णु, महेन्द्रपर्वत पर भार्गव, गोमद में स्थविराकार, उज्जयिनि में पितामह, कौशाम्बी में महादेव, अयोध्या में राघव, चित्रकूट में विरंचि, विन्ध्याचल में वाराह, हरिद्वार में सुरश्रेष्ठ, हिमवान् पर्वत पर शंकर, देहिका में त्रचाहस्त, अर्बुद में पद्महस्त, वृन्दावन में पद्मनेत्र, नैमिषारण्य में कुशहस्त, गोपक्षेत्र में गोविन्द, यमुनातट पर सुरेन्द्र, भागीरथी में पद्मतनु, जनस्थल में जनानन्द, कोंकण में मध्वक्ष, काम्पिल्य में कनकप्रभ, खेटक में अन्नदाता, क्रतुस्थल में शम्भु, लंका में पौलस्त्य, काश्मीर में हंसवाहन, अर्बुद में वसिष्ठ, उत्पलावन में नारद, मेधक में श्रुतिदाता, प्रयाग में यजुष्पति, शिवलिंग में सामवेद, मार्कण्डस्थान में मधुप्रिय, गोमन्त में नारायण, विदर्भा में द्विजप्रिय, अंकुलक में ब्रह्मगर्भ, ब्रह्मवाह में सुतप्रिय, इन्द्रप्रस्थ में दुराधर्ष, पम्पा में सुदर्शन, विरजा में महारूप, राष्ट्रवर्धन में सुरूप, कदम्बक में जनाध्यक्ष, समस्थल में देवाध्यक्ष, रुद्रपीठ में गंगाधर, सुपीठ में जलद, त्र्यम्बक में त्रिपुरारि, श्रीशैल में त्रिलोचन, प्लक्षपुर में महादेव, कपाल में वेधनाशन, श्रृंगवेरपुर में शौरि, निमिषक्षेत्र में चक्रधारक, नन्दिपुरी में विरूपाक्ष, प्लक्षपाद में गौतम, हस्तिनाथ में माल्यवान, वाचिक में द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी में दिवानाथ, भूतिका में पुरन्दर, चन्द्रा में हंसबाहु, चम्पा में गरुडप्रिय, महोदय में महायक्ष, पूतक वन में सुयज्ञ, सिद्धेश्वर में शुक्लवर्ण, विभा में पद्मबोधक, देवदारुवन में लिंगी, उदक में उमापति, मातृस्थान में विनायक, अलका में धनाधिप, त्रिकूट में गोविन्द, पाताल में वासुकि, कोविदार में युगाध्यक्ष, स्त्रीराज्य में सुरप्रिय, पूर्णगिरि में सुभोग, शाल्मलि में तक्षक, अमर में पापहा, अम्बिका में सुदर्शन, नवापीमें महावीर, कान्तार में दुर्गनाशन, पद्मावती में पद्मगृह तथा गगन में मृगलांछन नाम से रहता हूं।
हे मधुसूदन ! जो प्रभास में इन नामों द्वारा मेरा स्तवन करता है, वह मेरे धाम को पाकर आनन्द भोगता है। मेरे इस स्तोत्र पाठ से या श्रवण से मानसिक, वाचिक और शारीरिक सभी पाप छूट जाते हैं।"
कार्तिक की पूर्णिमा को जब कृत्तिका नक्षत्र हो, तब प्रभास क्षेत्र में वह तिथि मुझे बहुत प्रिय है और यदि उसी तिथि में रोहिणी नक्षत्र आ जाये तो वह पुण्यमयी महाकार्तिकी कहलाती है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। शनैश्चर, रविवार अथवा बृहस्पतिवार तथा कृत्तिका नक्षत्र के योग से युक्त यदि कार्तिक मास की पूर्णिमा हो तो उसमें बालरूपी ब्रह्माजी का दर्शन करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। विशाखा नक्षत्र के सूर्य और कृत्तिका नक्षत्र के चन्द्रमा हों तो वह पद्मकयोग प्रभासक्षेत्र में दुर्लभ है। करोड़ों पापों से युक्त मनुष्य भी उक्त योग में प्रभासक्षेत्र के भीतर यदि बालरूपधारी ब्रह्माजी का दर्शन कर ले तो उसे यमलोक नहीं देखना पड़ता ।

From : Skanda Purana, Brahma Khanda ( स्कन्द पुराण, ब्रह्म खंड )
https://sanskritdocuments.org/doc_deities_misc/brahmAShTottarashatanAmAvaliH.html
https://hindupad.com/brahma-namavali/
Bramharchana Paddhati By Acharya Mrityunjay (archive.org)