प्रपद्ये देवमीशानं शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्। ।
महादेवं महात्मानं सर्वस्य जगतः पतिम् ॥ १ ॥
आप हे देव ! आप सबके स्वामी हैं, आप शाश्वत (अविनाशी ) ध्रुव (स्थिर) एवं अव्यय ( अनश्वर) हैं। आप देवाधिदेव हैं, महान् आत्मा हैं, तथा समस्त जगत् के पति हैं, अतः आपको प्रणाम है ॥ १ ॥
ब्रह्माणं लोकर्तारं सर्वज्ञमपराजितम् ।
प्रभुं भूतभविष्यस्य साम्प्रतस्य च सत्पतिम् ॥ २ ॥
आप तीनों लोकों के स्रष्टा, सर्वज्ञ, किसी से भी अपराजेय, भूत, भविष्य एवं वर्तमान के अधिपति हैं, ऐसे आप ब्रह्मा को प्रणाम है ॥ २ ॥
ज्ञानमप्रतिमं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ।
ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च सहसिद्धिचतुष्टयः ॥ ३॥
जिसका ज्ञान अतुलनीय (सर्वश्रेष्ठ ) है, जिस जगत्पति का वैराग्य भी अनुपम है। इसी तरह जिसके ऐश्वर्य और धर्माचरण की समानता नहीं की जा सकती। चतुर्वर्ग की सिद्धियाँ जिसके सम्मुख हाथ जोड़े खड़ी हैं— ऐसे ब्रह्मा जी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ३ ॥
य इमान् पश्यते भावान् नित्यं सदसदात्मकान् ।
आविशन्ति पुनस्तं वै क्रियाभावार्थमीश्वरम् ॥ ४॥
जो इन सत् एवं असत् भावों को नित्य देखता रहता है, फिर भी ये भाव सृष्टिरचना के समय (व्यहारकाल में) जिसमें आविष्ट होते रहते हैं, उस देवाधिदेव को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४ ॥
लोककृल्लोकतत्त्वज्ञो योगमास्थाय तत्त्ववित् ।
असृजत् सर्वभूतानि स्थावराणि चराणि च ॥ ५ ॥
जो लोक का स्रष्टा है, अतः लोक की वास्तविकता को जानता है, जिसने योगसाधन द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है। एतदनन्तरही जिसने सभी अचल चल (स्थावर जङ्गम) प्राणियों की सृष्टि की है। ऐसे ब्रह्मा जी को मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ५ ॥
तमजं विश्वकर्माणं चित्पतिं लोकसाक्षिणम् ।
पुराणाख्यानजिज्ञासुर्व्रजामि शरणं प्रभुम् ॥ ६ ॥
मैं ऐसे अविनाशी, विश्वस्रष्टा, चित्स्वामी, लोकद्रष्टा प्रभु की शरण में इसलिये आया हूँ कि आप से मुझे पुराणों के दुर्लभ आख्यान सुनने को मिलें ॥ ६ ॥
वायुपुराणान्तर्गत महर्षिव्यासकृत ब्रह्मस्तुति सम्पूर्ण ॥