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श्री ब्रह्माजी के प्रति भक्ती के प्रभेद, रथयात्रा, कार्तिक पूर्णिमा पर दर्शन का माहात्म्य, तथा 108 नाम

Devotion towords Lord Brahma, Rath Yatra, Importance of Darshan on Kartika Purnima, and 108 Names


इस अध्याय में:-
ब्रह्माजी के प्रति भक्ति के भेद, रथयात्रा, ब्रह्मा के एक सौ आठ नाम तथा कार्तिक पूर्णिमा को उनके दर्शन का माहात्म्य

महादेवजी कहते हैं-
भक्ति के तीन भेद हैं- लौकिकी, वैदिकी और आध्यात्मिकी।
1 - गन्ध, माला, शीतल जल, घी, गुग्गुल, धूप, काला अगुरु, सुगन्धित पदार्थ, सुवर्ण, रत्न आदि आभूषण, विचित्र हार, न्यास, स्तोत्र, ऊँची-ऊँची पताका, नृत्य-वाद्य, गान, सब प्रकार की वस्तुओं के उपहार तथा भक्ष्य, भोज्य, अन्न, पान आदि सामग्रियों से मनुष्यों द्वारा जो ब्रह्माजी की पूजा की जाती है, लौकिकी भक्ति मानी गयी है।
2 - वेदमन्त्र और हविष्य भाग के द्वारा जो यज्ञक्रिया की जाती है, वह वैदिकी भक्ति है। अमावास्या और पूर्णिमा को किया जाने वाला अग्निहोत्र, संस्त्रवप्राशन, दक्षिणादान, पुरोडाश, इष्टि, धृति, सोमपान, सब प्रकार के यज्ञकर्म, ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद के मन्त्रों का जप तथा संहिता भाग का स्वाध्याय, ये सब कर्म जो ब्राह्मणों द्वारा किये जाते हैं, वे वैदिकी भक्ति के अन्तर्गत हैं।
3 - जो प्रतिदिन इन्द्रिय संयम पूर्वक प्राणायाम एवं ध्यान में संलग्न रहता है, भिक्षान्न से जीवन निर्वाह करता है, व्रत के पालन में स्थित रहता है, वह समस्त इन्द्रियों को विषयों की ओर से समेटकर उन्हें हृदय में स्थापित करके प्रजापति ब्रह्माजी का ध्यान करता है, वह आध्यात्मिकी भक्ति से युक्त ‘ब्रह्मभक्त’ कहलाता है।


ब्रह्माजी का ध्यान इस प्रकार करे, हृदय कमल की कर्णिका के आसन पर ब्रह्माजी विराजमान हैं, उनके शरीर का वर्ण लाल है, नेत्र बड़े सुन्दर हैं, मुख दिव्य तेज से प्रकाशित है, उनके चार भुजाएँ हैं और हाथों में वरद एवं अभय की मुद्राएँ हैं।

जो ममता और अहंकार से रहित, अनासक्त, परिग्रहशून्य, चारों पुरुषार्थों के प्रति भी स्नेह न रखने वाले, ढेला, पत्थर और सुवर्ण को समान दृष्टि से देखने वाले, समस्त प्राणियों के हित के लिये धर्मानुष्ठान में तत्पर, सांख्ययोग की विधि के ज्ञाता, धर्म के विषय में संशय रहित तथा प्रतिदिन ब्रह्माजी की पूजा में संलग्न रहने वाले हैं, वे ही ब्राह्मण प्रभासक्षेत्र के श्रेष्ठ निवासी हैं।


गायत्री उत्तम मन्त्र है। जो पूर्णिमा में उपवास करके गायत्री के अक्षरतत्त्वों द्वारा ब्रह्माजी की पूजा करता है, वह परम पद को प्राप्त होता है। यदि ब्राह्मण भयंकर संसार-सागर के पार उतरना चाहे तो प्रभासमें पूरे कार्तिक मास भर ब्रह्माजी के पूजन में तत्पर रहे। जिनके दर्शनमात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है, प्रभासक्षेत्र में उन बालरूपधारी ब्रह्माजी की कौन विद्वान् पूजा नहीं करेगा? जिनके एक दिन का अन्त होते ही देवता, असुर और मनुष्य आदि सब प्राणी विनाश को प्राप्त होते हैं, उनका पूजन कौन नहीं करेगा।

रुद्र और विष्णु के रूप में भी वे लोकनाथ ब्रह्माजी ही पूजित होते हैं।

जो पूर्णिमा को उपवास करके जगत्पति ब्रह्मा का विधि पूर्वक पूजन करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। कार्तिक की पूर्णिमा को सावित्री सहित चतुर्मुख ब्रह्माजी को गाजे-बाजे के साथ नगर में घुमाये। तत्पश्चात् उन्हें विश्राम-स्थान पर स्थापित करे फिर ब्राह्मणों को भोजन कराकर शाण्डिलेय की पूजा करे।
उसके बाद मंगलमय वाद्यों की ध्वनि के साथ ब्रह्माजी को पुनः रथ पर बिठाये। रथ के आगे शाण्डिली पुत्र की विधिवत् पूजा करके ब्राह्मणों से पुण्याहवाचन कराये। रथ पर चढ़ाने के बाद रात में जागरण करे। ब्रह्माजी के दाहिने पार्श्व में सावित्रीदेवी को स्थापित करे और भोजन को बायें पार्श्व में।
ब्रह्माजी के आगे एक कमल रख दे, फिर वाद्यों और शंखों की तुमुल ध्वनि के साथ समूचे नगर की प्रदक्षिणा करते हुए रथ को घुमाये और अपने स्थान पर आकर ब्रह्माजी की आरती करके फिर उन्हें यथास्थान विराजमान करे।

जो इस प्रकार यात्रा करता है, जो उस यात्रा को देखता अथवा ब्रह्माजी के रथ को खींचता है, वह ब्रह्मधाम में जाता है। जो ब्रह्माजी के रथ के पीछे दीप धारण करता है, वह पग-पग पर अश्वमेध यज्ञ का महान् फल पाता है।
राजा को चाहिये कि वह ब्रह्माजी की रथयात्रा अवश्य कराये। प्रतिपदा को ब्राह्मण भोजन कराना चाहिये और उन ब्राह्मणों का नवीन वस्त्र, गन्ध, माला और अनुलेपन आदि के द्वारा पूजन करना चाहिये। जो कार्तिक की अमावास्या को ब्रह्माजी के मन्दिर में दीप जलाता है, वह परम पद को प्राप्त होता है। सभी उत्सवों के अवसर पर इन जगत् पति ब्रह्माजी की पूजा करनी चाहिये।

पार्वती ! अब मैं ब्रह्माजी के एक सौ आठ नाम कहता हूँ; उनका अष्टोत्तरशतनामस्तोत्र परम दिव्य, गोपनीय तथा पापनाशक है। वेदों के ज्ञाता महात्मा ब्राह्मण को इसका उपदेश देना चाहिये।

पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने पूछा- ‘देवदेव पितामह! आप किन-किन स्थानों में किस-किस नाम से निवास करते हैं? यह स्मरण करके बताइये।’

ब्रह्माजी ने कहा-
‘मैं पुष्कर में सुरश्रेष्ठ, गया में प्रपितामह, कान्यकुब्ज में वेदगर्भ, भृगुकच्छ में चतुर्मुख, कौबेरी में सृष्टिकर्ता, नन्दिपुरी में बृहस्पति, प्रभास में बालरूपी, वाराणसी में सुरप्रिय, द्वारावती में चक्रदेव, वैदिश में भुवनाधिप, पौण्ड्रक में पुण्डरीकाक्ष, हस्तिनापुर में पीताक्ष, जयन्ती में विजय, पुरुषोत्तम में जयन्त, वाड में पद्महस्त, तमोलिप्त में तमोनुद, आहिच्छत्री में जनानन्द, कांचीपुरी में जनप्रिय, कर्णाटक में ब्रह्मा, ऋषिकुण्ड में मुनि, श्रीकण्ठ में श्रीनिवास, कामरूप में शुभंकर, उड्डीयान में देवकर्ता, जालन्धर में स्रष्टा, मल्लिका में विष्णु, महेन्द्र पर्वत पर भार्गव, गोमद में स्थविराकार,
उज्जयिनी में पितामह, कौशाम्बी में महादेव, अयोध्या में राघव, चित्रकूट में विरंचि, विन्ध्याचल में वाराह, हरिद्वार में सुरश्रेष्ठ, हिमवान् पर्वत पर शंकर, देहिका में स्रचाहस्त, अर्बुद में पद्महस्त, वृन्दावन में पद्मनेत्र, नैमिषारण्य में कुशहस्त, गोपक्षेत्र में गोविन्द, यमुना तट पर सुरेन्र, भागीरथी में पद्मतनु, जनस्थल में जनानन्द, कोंकण में मध्वक्ष, काम्पिल्य में कनकप्रभ, खेटक में अन्नदाता, क्रतुस्थल में शम्भु, लंका में पौलस्त्य, काश्मीर में हंसवाहन, अर्बुद में वसिष्ठ, उत्पलावन में नारद, मेधक में श्रुतिदाता, प्रयाग में यजुष्पति, शिवलिंग में सामवेद, मार्कण्ड स्थान में मधुप्रिय, गोमन्त में नारायण,
विदर्भा में द्विजप्रिय, अंकुलक में ब्रह्मगर्भ, ब्रह्मवाह में सुतप्रिय, इन्द्रप्रस्थ में दुराधर्ष, पम्पा में सुदर्शन, विरजा में महारूप, राष्ट्रवर्धन में सुरूप, कदम्बक में जनाध्यक्ष, समस्थल में देवाध्यक्ष, रुद्रपीठ में गंगाधर, सुपीठ में जलद, त्र्यम्बक में त्रिपुरारि, श्रीशैल में त्रिलोचन, प्लक्षपुर में महादेव, कपाल में वेधनाशन, श्रृंगवेरपुर में शौरि, निमिषक्षेत्र में चक्रधारक, नन्दिपुरी में विरूपाक्ष, प्लक्षपादप में गौतम, हस्तिनाथ में माल्यवान्, वाचिक में द्विजेन्द्र, इन्द्रपुरी में दिवानारथ, भूतिका में पुरन्दर,
चन्द्रा में हंसबाहु, चम्पा में गरुडप्रिय, महोदय में महायक्ष, पूतक वन में सुयज्ञ, सिद्धेश्वर में शुक्लवर्ण, विभा में पद्मबोधक, देवदारुवन में लिंगी, उदक में उमापति, मातृस्थान में विनायक, अलका में धनाधिप, त्रिकूट में गोविन्द, पाताल में वासुकि, कोविदार में युगाध्यक्ष, स्त्रीराज्य में सुरप्रिय, पूर्णगिरि में सुभोग, शाल्मलि में तक्षक, अमर में पापहा, अम्बिका में सुदर्शन, नरवापी में महावीर, कान्तार में दुर्गनाशन, पद्मावती में पद्मगृह तथा गगन में मृगलाञ्छन नाम से रहता हूँ।

मधुसूदन!
जो इन एक सौ आठ में से एकमात्र बालरूपी ब्रह्मा का भी दर्शन कर लेता है, उसे पूर्वोक्त सभी ब्रह्मविग्रहों के दर्शन का पुण्य-फल प्राप्त होता है।

श्रीकृष्ण! जो प्रभास में इन नामों द्वारा मेरा स्तवन करता है, वह मेरे धाम को पाकर आनन्द भोगता है।
मेरे इस स्तोत्र के पाठ से या श्रवण से मानसिक, वाचिक और शारीरिक सभी पाप छूट जाते हैं।
कार्तिक की पूर्णिमा को जब कृत्तिका नक्षत्र हो, तब प्रभासक्षेत्र में वह तिथि मुझे बहुत प्रिय है। और यदि उसी तिथि में रोहिणी नक्षत्र आ जाय तो वह पुण्यमयी महा कार्तिकी कहलाती है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है।
शनैश्चर, रविवार अथवा बृहस्पतिवार तथा कृत्तिका नक्षत्र के योग से युक्त यदि कार्तिक मास की पूर्णिमा हो तो उसमें बालरूपी ब्रह्माजी का दर्शन करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है।
विशाखा नक्षत्र के सूर्य और कृत्तिका नक्षत्र के चन्द्रमा हों तो वह पद्मकयोग प्रभासक्षेत्र में दुर्लभ है।
करोड़ों पापों से युक्त मनुष्य भी उक्त योग में प्रभासक्षेत्र के भीतर यदि बालरूपधारी ब्रह्माजी का दर्शन कर ले तो उसे यमलोक नहीं देखना पड़ता।


From : श्री स्कन्द पुराण / प्रभास-खण्ड / अध्याय 31